Wednesday, 7 August 2013

श्वान


किंवाड के खुलने की आवाज और किसी की आहट
आँखें लगाए रखी है अपने आँगन में..तुम आओगी कभी तो.
हालांकि तुम कह के गयी थी कभी न आने का
मगर एक आस,एक उम्मीद,एक भरोसा
ठीक वैसे ही जैसे मोर सर उठाए झांकता है
के आसमान की छलनी से छन के आएगी बारिश
दूर जब कोई रेत का बवंडर उठता है मुझको लगता है
तुम धो रही हो खुदको मेरी मिट्टी से
तुम आओगी न! भरोसा न दो तो दिलासा दे दो
शायद तुम्हे भी अब मेरी प्रीत का भान हो गया हो
मुझे तुम मोर न समझो तो समझ लेना वो श्वान
जो उस चौखट पर आता है जहाँ से उसे दुत्कार देते है रोज
बस इसी उम्मीद के साथ की आज
शायद इस घर का मालिक इंसान हो गया हो 

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