Wednesday, 7 August 2013

ओ चिड़िया!


बहुत दिनों से घर का आँगन सुना सुना है
देहरी फीकी-फीकी है दीवारें उखड़ी उखड़ी सी
वो चिड़िया जो दिनभर घर में चहकी चहकी फिरती थी
मेरी छत को जिसने खुदके घर जैसा ही कर डाला था
वो जो खुद को ही शीशे के आगे चोंच चुभाया करती थी
बैठ परींडे के ऊपर जो पंख भिगोया करती थी
जिसने कोने कोने को टूटे फाहों से भर डाला था
जिसने मुझको भी मानो कोई चिडे सा कर डाला था
कुछ दिन पहले वो एक वहशी गिद्ध से प्यार लगा बैठी
प्यार कहू क्या जैसे खुद ही खुद के पंख जला बैठी
कई दिनों से दिखी नहीं है शायद वो भी चली गयी है
पर मैं तो ये भी जानूं हूँ की गिद्ध भला कब अपने होते है
ये प्यार मोहब्बत ओ चिड़िया! सुनलो सायें या सपने होते है    

No comments:

Post a Comment