Thursday, 9 May 2013

incomplete work 2


मुरझाई सी इन आँखों में भी कुछ ख्वाब जिंदा है
सच तब तक जियेगा जब तलक माहताब ज़िंदा है
तुम्हारे शहर के तो बुढ़ों की भी मर गयी इज्जत
हमारे गाँव के बच्चों में भी आदाब जिन्दा है
मेरे ख़ामोश होंठो की हया की मत टटोलो तुम
मेरी बातों के लहजे में अभी तेज़ाब ज़िंदा है
नहीं  उम्मीद मुझको के कभी मेरा भी होगा वो
मैं  जिन्दा हूँ अभी क्यूंकि मेरे माँ-बाप जिन्दा है

उलझने ही उलझने है ज़िन्दगी की डोर में
कितनी आहें दब गयी है इस शहर के शोर में
हर तरफ और हर जगह ये माजरा क्या है
या खुदा!तू ही बता तेरी रजा क्या है

मोहब्बत के शजर पे हवस के फूल आ रहे है
जज्बात की जमीन क्यूँ बंजर नहीं होती

इश्क गर गुनाह है दुनिया में
तो मैं शहंशाह हूँ गुनाहों का

अपनी परछाई को बनते बिगड़ते देखना
धुप को दीवार पर चढ़ते उतरते देखना
क्या खूब हालत है इस दुनिया में शख्श-ए-आम की
खुद के हाथो खुद के ही घर को बिखरते देखना

मैं तो एक अभागा हूँ मैंने न बचपन न यौवन देखा
मन के मयूरों की बस्ती ने सदा सुलगता सावन देखा
आशाओं की हत्या कर हर रोज समर्पण करता हूँ
मेरे सपनो के उपवन ने बस पतझड़ का ही मौसम देखा


इन ख़्वाबों पे अब मुझको कोई पहरा नहीं दिखता
जहाँ डूबा हूँ मैं उतना मुझे कुछ गहरा नहीं दिखता
नयी ये बात है या मेरे दिल का आइना है जिसमें
बस जिस्म दिखता है यार का चेहरा नहीं दिखता

मैं सनम काश तेरे कमरे का आईना होता
रोज ही देखता रहता तुझे संवरते हुए

जिसको समझा था मोहब्बत का मसीहा मैंने
एहसास की दौलत का भिखारी निकला वो शख्श

कांटो से निबाह की तो ख़ुशी भी मिली मुझे
फूलों से दोस्ती कर पछता रहा हूँ मैं
हर एक सांस पे निकलते थे आंसू मेरे
मौत मिलते ही खिलखिलाने लगा हूँ मैं   

ये लब कुछ और कहते है निगाहें कुछ बताती है
मेरे महबूब तुझको भी ठगी क्या खूब आती है

न ये अहसास बस में है न है ये लफ्ज़ भी मेरे
मैं लिखता हूँ वोही जो मुझे दुनिया सीखाती है

आशिकों पर सबसे बड़ा अहसान कर दो
साँसों का थामना ए खुदा!आसान कर दो
मेरे घर पे जश्न और उसके घर पे मातम
उसको किया है लाश तो मुझे श्मसान कर दो

अच्छा नहीं हूँ मैं कुछ-कुछ बुरा भी हूँ
मेरी फितरत को पढना है तो अपनी फितरत बदल के देख

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