Saturday, 19 January 2013

"कल फिर आना तुम"


कल फिर आना तुम
उन्ही निगाहों को लेकर
जिन निगाहों से
तुमने मुझे पहली बार देखा
और
मुझ ही में खो गए
उसी पेड़ के तले आना
जहां बैठकर अक्सर
हम न जाने कितनी ही बाते किया करते थे
तुम्हे याद है वो
पेड़ के कोटर में रहने वाला
पक्षियों का जोड़ा
जो गवाह है
हमारी प्रीत के पहले चुम्बन का
याद है वो अधमुड़ी डाली
यूँ लगता था,मानो
कोई छुप छुप के हमें देख रहा हो
तुम तो शायद भूल जाओगे कभी मुझको
मगर वो सब,मुझे कभी नहीं भूलेंगे
उन्हें कह देना नहीं आएगी यहाँ पर
सयानी सी दिखने वाली वो नादान लड़की
कल फिर आना कॉलेज की लाइब्रेरी में
जहां मैं यूँही किताबे पलटते हुए
तुम्हारे आने का इन्तजार किया करती थी
तुम कुछ कंकरों में प्रेमपत्र लपेटकर
मेरी और फेंका करते थे
वो कंकर कल भी वही पड़े होंगे
वो कंकर,
शायद फिर ख़ूबसूरत शब्दों में सिमटना चाहे
तुम उन्हें उठाकर फ़ेंक देना पत्थरों के ढेर में
मैं नहीं चाहती की उनपर फिर
किसी मासूम को बर्बाद करने का इल्जाम लगे
कल फिर आना तुम
शहर की उस दूकान पर
जहां से खरीदकर तुमने मुझे पहला गुलाब दिया था
वहाँ फर्श पर बिखरी होगी कुछ सुखी पंखुड़िया
उन्हें छूना मत, उन्हें कुचलना अपने पैरों से
ताकि उन्हें भी अहसास हो
जमाने में
जमीन पर पड़ी हर चीज को
यूँ ही कुचला जाता है
किसी के अरमानो की तरह
कल फिर आना तुम
उसी नदी के किनारें
जहां तुम मुझे बस एक बार ले गए
और न जाने क्यूँ
मैं तुम्हे वहाँ ले जाने को कहती
तो तुम टाल देते
तुम डरते थे,शायद!
कहीं हम
नहीं तुम
बदनाम न हो जाओ
देखना वहाँ बैठी हर लड़की में
तुम्हे मैं नजर आउंगी
गुनगुनाती हुई
खिलखिलाती हुई
अपने प्रेमी से वफाओ के वादे लेती हुई
लेकिन वो मैं नहीं हूँ
मैं तो डूब गयी हूँ
उसी नदी में
फँस गयी हूँ
सैंकड़ो जलचर सांपो के मजबूत पाशो में
गला रुंधा हुआ है मेरा
मगर
मैं रो नहीं पा रही
काश!मुझे कोई रोने देता
काश!मुझे कोई रोने देता  

No comments:

Post a Comment