Monday, 28 January 2013

तुम्हारी तस्वीर


मेरे कमरे की दीवार पर टंगी फोटो फ्रेम ने संभाल रखा था
तुम्हारी तस्वीर को
तुम्हारी तस्वीर जिसमें पहन रखी थी नीली ड्रेस तुमने
तुम्हारी तस्वीर जिसे देखकर मेरी बहनों ने चिढाया था मुझे
तुम्हारी तस्वीर जिसे कई रात सिरहाने रख के सोया था मैं
तुम्हारी तस्वीर जिसे देखकर लोग बहुत कुछ पूछते थे मुझे
तुम्हारी तस्वीर तल्ख़ रिश्तों के बाद भी जिसमें मुस्कुरा रही थी तुम
तुम्हारी तस्वीर फाड़ने के बाद जिसे कई बार समेटा मैंने
तुम्हारी तस्वीर जिससे आजकल नजरें चुरा रहा था मैं
तुम्हारी तस्वीर जिसे खुद से ही छुपा रहा था मैं
तुम्हारी तस्वीर उखड़े रंगो में उभरा सबसे खुबसुरत चित्र
तुम्हारी तस्वीर से लिपटकर कल बहूत देर तक रोया था मैं
तुम्हारी तस्वीर को आज अपने साथ ही जला रहा हूँ मैं
तुम्हारी तस्वीर को आज अपने साथ ही जला रहा हूँ मैं 

जनवरी


अभी कुछ दिनों पहले ही किसी ने कहाँ था
के जनवरी के जाड़ें में तुम सेंकती हो धुप
अक्सर अपनी छत पर अकेले टहलती हो
हालाँकि शहर में अब तो आ गया हैं
बारिशों का मौसम, फिर भी
मैंने अपने घर के कैलंडर में रोक रखा हैं जनवरी को
कंपकंपी नहीं होती मगर काँपता हूँ
जलती हुई दोपहर में आ जाता हूँ छत पर
टहलता हूँ बीसियों बार
देखता हूँ तुम्हारी छत को
मैं पागल हूँ,शायद!
तुम तो मुझे जानती भी नहीं हो
बस मैं ही चाहता हूँ तुम्हें
तुम तो मुझे चाहती भी नहीं हो 
ये मौसम मेरे मनचाहे क्यूँ बदलेंगे?
तुम मेरी खातिर छत पर क्यूँ आओगी?

Sunday, 20 January 2013

“आत्ममंथन”


नरसंहार बलात्कार व कई दुर्व्यवहार जब जब होते है इस धरा पर
सहम के कांपती है ये धरा और फिर इस तरह भूकंप आता है

भूख से मरता है जब बचपन
षड़यंत्र से लुटता है सुहागिनों का सिंदूर
शहनाईयों के घर में जब रुदाली काम आती है
तब हाय लगती है हाँ मनुवंश को इनकी
हाँ समंदर का ह्रदय भी छटपटाता है
और जलजले के साथ फिर सैलाब आता है

खत्म होती है जब रिश्तो की मर्यादा
सिमट के रह जाता है जब प्रेम दैहिक अवयवो के बीच
क्रूरता छल लेती है जब किसी के बालमन को
लालच कत्ल करती है जब ईमान का
आसमान भी जमीन को तब धिक्कारता है
एक-एक बादल हर किसान को दुत्कारता है
और अन्न का दाना भी फिर दुश्वार हो जाता है

भगवान के अस्तित्व पर जब प्रश्न उठते है
देशरक्षक ही देश को जब लुटते है
मानवता जब पैरों तले रौंदी जाती है
वहशियों के हाथों में इज्जत सौंप दी जाती है
भरे बाजार में तब नैतिकता नीलाम होती है
हमारी ललनाओं की कोख भी बदनाम होती है
बह निकलता है रोष गरम लावा के रूप में
और फिर इस तरह ज्वालामुखी विस्फोट होता है
बदलेंगे जब मानसिकता खत्म होगा क्लेश भी
इस तरह तो न रहेंगे मनुष्य के अवशेष भी
बदलना ही पड़ेगा अब हमें हमारी पीढ़ियों के वास्ते
बंद करने होंगे अब कुप्रवृतियो के रास्ते
वर्ना रामराज्य है कहाँ ये तो राक्षसों की लंका है
कर दो आत्ममंथनअब शुरू, क्योंकि मुझे महाप्रलय की आशंका हैI    

Saturday, 19 January 2013

"कल फिर आना तुम"


कल फिर आना तुम
उन्ही निगाहों को लेकर
जिन निगाहों से
तुमने मुझे पहली बार देखा
और
मुझ ही में खो गए
उसी पेड़ के तले आना
जहां बैठकर अक्सर
हम न जाने कितनी ही बाते किया करते थे
तुम्हे याद है वो
पेड़ के कोटर में रहने वाला
पक्षियों का जोड़ा
जो गवाह है
हमारी प्रीत के पहले चुम्बन का
याद है वो अधमुड़ी डाली
यूँ लगता था,मानो
कोई छुप छुप के हमें देख रहा हो
तुम तो शायद भूल जाओगे कभी मुझको
मगर वो सब,मुझे कभी नहीं भूलेंगे
उन्हें कह देना नहीं आएगी यहाँ पर
सयानी सी दिखने वाली वो नादान लड़की
कल फिर आना कॉलेज की लाइब्रेरी में
जहां मैं यूँही किताबे पलटते हुए
तुम्हारे आने का इन्तजार किया करती थी
तुम कुछ कंकरों में प्रेमपत्र लपेटकर
मेरी और फेंका करते थे
वो कंकर कल भी वही पड़े होंगे
वो कंकर,
शायद फिर ख़ूबसूरत शब्दों में सिमटना चाहे
तुम उन्हें उठाकर फ़ेंक देना पत्थरों के ढेर में
मैं नहीं चाहती की उनपर फिर
किसी मासूम को बर्बाद करने का इल्जाम लगे
कल फिर आना तुम
शहर की उस दूकान पर
जहां से खरीदकर तुमने मुझे पहला गुलाब दिया था
वहाँ फर्श पर बिखरी होगी कुछ सुखी पंखुड़िया
उन्हें छूना मत, उन्हें कुचलना अपने पैरों से
ताकि उन्हें भी अहसास हो
जमाने में
जमीन पर पड़ी हर चीज को
यूँ ही कुचला जाता है
किसी के अरमानो की तरह
कल फिर आना तुम
उसी नदी के किनारें
जहां तुम मुझे बस एक बार ले गए
और न जाने क्यूँ
मैं तुम्हे वहाँ ले जाने को कहती
तो तुम टाल देते
तुम डरते थे,शायद!
कहीं हम
नहीं तुम
बदनाम न हो जाओ
देखना वहाँ बैठी हर लड़की में
तुम्हे मैं नजर आउंगी
गुनगुनाती हुई
खिलखिलाती हुई
अपने प्रेमी से वफाओ के वादे लेती हुई
लेकिन वो मैं नहीं हूँ
मैं तो डूब गयी हूँ
उसी नदी में
फँस गयी हूँ
सैंकड़ो जलचर सांपो के मजबूत पाशो में
गला रुंधा हुआ है मेरा
मगर
मैं रो नहीं पा रही
काश!मुझे कोई रोने देता
काश!मुझे कोई रोने देता