Wednesday, 7 August 2013

श्वान


किंवाड के खुलने की आवाज और किसी की आहट
आँखें लगाए रखी है अपने आँगन में..तुम आओगी कभी तो.
हालांकि तुम कह के गयी थी कभी न आने का
मगर एक आस,एक उम्मीद,एक भरोसा
ठीक वैसे ही जैसे मोर सर उठाए झांकता है
के आसमान की छलनी से छन के आएगी बारिश
दूर जब कोई रेत का बवंडर उठता है मुझको लगता है
तुम धो रही हो खुदको मेरी मिट्टी से
तुम आओगी न! भरोसा न दो तो दिलासा दे दो
शायद तुम्हे भी अब मेरी प्रीत का भान हो गया हो
मुझे तुम मोर न समझो तो समझ लेना वो श्वान
जो उस चौखट पर आता है जहाँ से उसे दुत्कार देते है रोज
बस इसी उम्मीद के साथ की आज
शायद इस घर का मालिक इंसान हो गया हो 

ओ चिड़िया!


बहुत दिनों से घर का आँगन सुना सुना है
देहरी फीकी-फीकी है दीवारें उखड़ी उखड़ी सी
वो चिड़िया जो दिनभर घर में चहकी चहकी फिरती थी
मेरी छत को जिसने खुदके घर जैसा ही कर डाला था
वो जो खुद को ही शीशे के आगे चोंच चुभाया करती थी
बैठ परींडे के ऊपर जो पंख भिगोया करती थी
जिसने कोने कोने को टूटे फाहों से भर डाला था
जिसने मुझको भी मानो कोई चिडे सा कर डाला था
कुछ दिन पहले वो एक वहशी गिद्ध से प्यार लगा बैठी
प्यार कहू क्या जैसे खुद ही खुद के पंख जला बैठी
कई दिनों से दिखी नहीं है शायद वो भी चली गयी है
पर मैं तो ये भी जानूं हूँ की गिद्ध भला कब अपने होते है
ये प्यार मोहब्बत ओ चिड़िया! सुनलो सायें या सपने होते है    

जलजला


ये बारिशें तो कुछ भी तबाह नहीं करती
तबाह करते है तो वो सैलाब जो बरसो से
दबे होते है पलकों की कोरो में
लगा रहता है हर पल डर के
किसी की बस एक थपकी से कहीं
बाहर न आ जाये के जैसे कोई जलजला हो
कहीं कहदे न वो सब कुछ छूपा रखा है जो सब से
बारिशों से तो अक्सर खुश होते है लोग,मगर
ये जलजला आया कभी तो
मर जायेंगे मेरी माँ के सिरहाने रखे ख्वाब
टूट जायेंगे पिताजी की आस के चश्मे
बहनों की राखीयाँ ढूंढेगी मेरा हाथ फिर तो
दोस्तों संग चाय की सब चुस्कियां हो जाएगी बेस्वाद

बस!एक बूँद


बस! एक बूँद बारिश की गिरी आकर हथेली पर
के जैसे बो गयी थी तुम बरसो पहले
तुम्हारी याद के बीज
उग आयी धीमें-धीमें फसल पूरी
मेरे जेहन की बंजर सी जमीन पर
कुछ खास था शायद इनमें
बिना मेहनत के लहलहा गया खेत पूरा
और मैं चल पड़ा खेत के ठन्डे सफ़र में
तभी एक बूंद से छूटा तुम्हारा साथ फिर से
मुझे फिर याद आया वो वक़्त भी तो बूंद ही था
जो ठहरा था आँखों में वो फिर छलका हथेली में  

Monday, 20 May 2013

ओ!चिड़िया


अलमारियों में उथले पड़े है सारे कपडे
टेबल की दराजो में सड गए है सभी कागज
दीवार पर लगा कश्मीर कहें मानो उजड़ गया हो वहाँ का स्वर्ग
कमरे का रंग भी आज उखड़ा उखड़ा है
किताबों की शेल्फ पे चढ़ गयी है मिट्टी
जिस थैले में छुपा रखे थे मैंने तुम्हारे होंठों के छुए कॉफ़ी के कप
उसके सब रेश बिखर गए है घर के कोनो में
जब से छोड़ के गयी हो ह्रदय का कोटर तुम ओ!सुगन चिड़िया
तुम्हारा ये खिलखिलाता पेड़ भी तब से बहुत उदास है

Thursday, 9 May 2013

incomplete work 3


किसी को बहुत बुरा किसी को भला लगता हूँ मैं
जो भी जैसा है बस उसे वैसा ही लगता हूँ मैं

रुक भी जाओ!सुनो कुछ मेरी बात भी,रूठ कर जा रहे हो बिना बात के
गैर की बात पर कर दिया फैसला,  मायने क्या रहे फिर मुलाक़ात के

वक़्त पड़ने पे टूट जाते है,उसूल बच्चो के गुल्लक की तरह होते है

आस की माला टूटी मोरी सुपन के मोती बिखरे रे
मेरे चौक का चाँद चुराकर घोर अँधेरे उतरे रे

बातों बातों में ही सही कह दिया उसने
इश्क नहीं अहसान किया था मुझपर

मैं मरूँगा तो किताबों में लिखा जाऊंगा
मैं जियूँगा तो किताबों सा लिखा जाऊंगा

कुछेक दुपट्टे और बस एक ख़ूबसूरत नाम
बेटियों के हिस्से में और बपौती नहीं आती
जब भी आती है लाती है हज़ारों लफड़े
जवानी दिमागों-बदन में अकेले नहीं आती
लुटना चाहे तो लुट सकता है इशारों में शहर को
हुस्न वाले को मगर ऐसी डकैती नहीं आती

ख़ामोशी में शोर छुपा है ये कैसे पहचानूँगा
मेरे मन में चोर छुपा है ये भी कैसे जानूँगा
मेरे आगे कोई रख दो शीशा एक मोहब्बत का
मैं क्या हूँ और कैसा है वो बोलेगा मैं मानूंगा

इश्क फिर से अब नहीं होगा
हुस्न तेरा असर नहीं होगा
नींद ली है तो जान भी ले लो
जागकर अब गुजर नही होगा

मौत भी तो जश्न है जो जिंदगी खोकर मिला
छोड़कर साँसे करोडो,हो गया हूँ लाश मैं
सब खड़े है और सबमें,सो रहा हूँ ख़ास मैं

कितने नए शहर कितने नए मकाँ
कितनी ही बार ये थम थम के चली है
ज़िन्दगी मेरी जोगियों के कारवां सी हैं

ज़िन्दगी के सब ग़मों को झेलकर
मौत से मिलकर लगा के जश्न हो

हाँ मैं बेचता हूँ इश्क,खरीदोगे तो ये सुन लो
वफ़ा का दाम है और दूकां मेरे दिल में लगी है

ज़िन्दगी में बढ़ रही दुश्वारियां
मौत से करने लगा हूँ यारियां

सब जैसा बनने की कोशिश करते-करते
अब तो ये भी भूल गया के मैं कैसा था
देखा एक सीधे बच्चे को आज बिगड़ते
मुझको आया याद कभी मैं भी ऐसा था
सबको मुझसे प्यार मुझे खुदसे ही नफरत
पहले खुदको प्यारा था मैं चाहे जैसा था

incomplete work 2


मुरझाई सी इन आँखों में भी कुछ ख्वाब जिंदा है
सच तब तक जियेगा जब तलक माहताब ज़िंदा है
तुम्हारे शहर के तो बुढ़ों की भी मर गयी इज्जत
हमारे गाँव के बच्चों में भी आदाब जिन्दा है
मेरे ख़ामोश होंठो की हया की मत टटोलो तुम
मेरी बातों के लहजे में अभी तेज़ाब ज़िंदा है
नहीं  उम्मीद मुझको के कभी मेरा भी होगा वो
मैं  जिन्दा हूँ अभी क्यूंकि मेरे माँ-बाप जिन्दा है

उलझने ही उलझने है ज़िन्दगी की डोर में
कितनी आहें दब गयी है इस शहर के शोर में
हर तरफ और हर जगह ये माजरा क्या है
या खुदा!तू ही बता तेरी रजा क्या है

मोहब्बत के शजर पे हवस के फूल आ रहे है
जज्बात की जमीन क्यूँ बंजर नहीं होती

इश्क गर गुनाह है दुनिया में
तो मैं शहंशाह हूँ गुनाहों का

अपनी परछाई को बनते बिगड़ते देखना
धुप को दीवार पर चढ़ते उतरते देखना
क्या खूब हालत है इस दुनिया में शख्श-ए-आम की
खुद के हाथो खुद के ही घर को बिखरते देखना

मैं तो एक अभागा हूँ मैंने न बचपन न यौवन देखा
मन के मयूरों की बस्ती ने सदा सुलगता सावन देखा
आशाओं की हत्या कर हर रोज समर्पण करता हूँ
मेरे सपनो के उपवन ने बस पतझड़ का ही मौसम देखा


इन ख़्वाबों पे अब मुझको कोई पहरा नहीं दिखता
जहाँ डूबा हूँ मैं उतना मुझे कुछ गहरा नहीं दिखता
नयी ये बात है या मेरे दिल का आइना है जिसमें
बस जिस्म दिखता है यार का चेहरा नहीं दिखता

मैं सनम काश तेरे कमरे का आईना होता
रोज ही देखता रहता तुझे संवरते हुए

जिसको समझा था मोहब्बत का मसीहा मैंने
एहसास की दौलत का भिखारी निकला वो शख्श

कांटो से निबाह की तो ख़ुशी भी मिली मुझे
फूलों से दोस्ती कर पछता रहा हूँ मैं
हर एक सांस पे निकलते थे आंसू मेरे
मौत मिलते ही खिलखिलाने लगा हूँ मैं   

ये लब कुछ और कहते है निगाहें कुछ बताती है
मेरे महबूब तुझको भी ठगी क्या खूब आती है

न ये अहसास बस में है न है ये लफ्ज़ भी मेरे
मैं लिखता हूँ वोही जो मुझे दुनिया सीखाती है

आशिकों पर सबसे बड़ा अहसान कर दो
साँसों का थामना ए खुदा!आसान कर दो
मेरे घर पे जश्न और उसके घर पे मातम
उसको किया है लाश तो मुझे श्मसान कर दो

अच्छा नहीं हूँ मैं कुछ-कुछ बुरा भी हूँ
मेरी फितरत को पढना है तो अपनी फितरत बदल के देख

incomplete work 1


एक ही कमरे में खाना-पीना,रोना-धोना,रहना-सोना
एक मंगते ने सपने में घर देखा भी तो ऐसा देखा

जब से सुना हैं जमाने में चल रही है बुरी हवा
मैंने तब से अपने घर की खिड़की भी नहीं खोली

घर के जिस कोने में जाते दीवारों से लग जाते हैं
बूढ़े लोग मरने से पहले ही तस्वीरें हो जाते हैं

एक फौजी जिसकी दुल्हन की हीना भी नहीं सुखी अभी
कल जिहादी जंग का वो पहला कलेवा हो गया
अमीरों के गुसलखानों में जो कीड़ों सा पड़ा रहता था
सुना है ओढ़ के खद्दर अब वो फकीरों का नेता हो गया  

भूखे नंगे बच्चे जो सड़कों और फूटपाथों पर सोतें हैं
उनकी खातिर मक्के के दो दाने भी सब कुछ होते हैं

अना को मार दे लावारिसों की लाश हो जा
या खद्दर ओढ़ ले तू भी गधो में ख़ास हो जा
जिसकी बेटियां तो मौज करती सासरे में
और बहुएँ रोज रोती हैं तू वैसी सास हो जा

वो आसमाँ के रंग में उलझा हुआ है
उसको जमीं की कालिखो का क्या पता है
माँ जो मुझको दे रही है गालियाँ
उसके मन में मेरी खातिर बस दुआ है




अपने दामन को कभी भी गौर से देखा नहीं
दूसरों के जिस्म के बस दाग मैं गिनता रहा
सब गिरेंगे,सांस की चोटी पे ठहरा कौन है
लोग जब मरने लगे मैं मौत पर हँसता रहा
मैं मसानो में बची मुर्दों की हड्डी सा रहा
कुछ तो गंगा में मिला कुछ खाक बन उड़ता रहा

वो बड़े लोग हैं उन्हें माफ़ है हजारों क़त्ल
मैं फकीर हूँ गुनाह कोई करे इल्जाम मुझ ही पे आएगा

इन महलों की दीवारों से मौन सुनाई देता है
फूटपाथों पर जाकर देखो मुल्क दिखाई देता है
भूखे नंगे फिरते है सच के साहूकार सभी
पत्थर पूजे जाते है इंसान दुहाई देता है

खिलौने तोड़ के खंजर थमा दिया मुझे
मेरे मजहब ने ही कातिल बना दिया मुझे
माँ की गोद में था तब तक संभला हुआ था
जमाने से मिला तो जमाने ने बहका दिया मुझे

मेरी आवाज मेरा चेहरा महक भी मुझ सी
मैंने खुद में ही छुपा रखा है गुनाहगार खुद का

मसीहा मत बनाओ तुम मुझे इंसान रहने दो
मुझे पहचान की चाहत नहीं अंजान रहने दो
सयानापन समझदारी मुबारक हो तुम्हे सारी
न सिखलाओ मुझे ये सब मुझे नादान रहने दो

Sunday, 17 March 2013

“प्रेम तुम विश्वास हो”


बह रहे हो हर नदी में तुम करोडो बूंद बन कर
उड़ रहे हो बादलों संग श्वेत-नीला रंग बन कर
एक बंगले में खड़े हो तुम सदी से ठूंठ जैसे
और खँडहर में उगी तुम नर्म मखमल घास हो
ये जगत पाखण्ड है और प्रेम तुम विश्वास हो

तुम भोर की किरणों की रंगत,रात का अंधार तुम
तुम गोधुली वेला की आहट,धुप की चिलकार तुम
रेत के साम्राज्य में एक मेघ की मल्हार तुम हो
और गगन को ताकते सुन्दर मयूर की प्यास हो
ये जगत पाखण्ड है और प्रेम तुम विश्वास हो

तुम सर्दियों में मावठे के बाद खिलती धुप से
तुम जेठ के जलते दिनों में राहतो की शाम हो
तुम बारिशों में भीगती नवयौवना के रूप से
और तितलियों को छेड़ते मासूम का उल्लास हो
ये जगत पाखण्ड है और प्रेम तुम विश्वास हो

तुम किताबों में छुपी कोई फटी तस्वीर हो
तुम किसी की याद में रोते ह्रदय का नीर हो
तुम कभी हो खिलखिलाहट या कभी मुस्कान हो
तुम कभी हो साथ सच में या कभी अहसास हो
ये जगत पाखण्ड है और प्रेम तुम विश्वास हो

तुम पहाडो में मचलती एक झील की आवाज हो
एक अनहद तान तुम हो और कभी खुद साज हो
तुम किसी की चाल में संभली हुई सी शर्म हो
और किसी अल्हड नयन में खेलता आकाश हो
ये जगत पाखण्ड है और प्रेम तुम विश्वास हो

Monday, 28 January 2013

तुम्हारी तस्वीर


मेरे कमरे की दीवार पर टंगी फोटो फ्रेम ने संभाल रखा था
तुम्हारी तस्वीर को
तुम्हारी तस्वीर जिसमें पहन रखी थी नीली ड्रेस तुमने
तुम्हारी तस्वीर जिसे देखकर मेरी बहनों ने चिढाया था मुझे
तुम्हारी तस्वीर जिसे कई रात सिरहाने रख के सोया था मैं
तुम्हारी तस्वीर जिसे देखकर लोग बहुत कुछ पूछते थे मुझे
तुम्हारी तस्वीर तल्ख़ रिश्तों के बाद भी जिसमें मुस्कुरा रही थी तुम
तुम्हारी तस्वीर फाड़ने के बाद जिसे कई बार समेटा मैंने
तुम्हारी तस्वीर जिससे आजकल नजरें चुरा रहा था मैं
तुम्हारी तस्वीर जिसे खुद से ही छुपा रहा था मैं
तुम्हारी तस्वीर उखड़े रंगो में उभरा सबसे खुबसुरत चित्र
तुम्हारी तस्वीर से लिपटकर कल बहूत देर तक रोया था मैं
तुम्हारी तस्वीर को आज अपने साथ ही जला रहा हूँ मैं
तुम्हारी तस्वीर को आज अपने साथ ही जला रहा हूँ मैं 

जनवरी


अभी कुछ दिनों पहले ही किसी ने कहाँ था
के जनवरी के जाड़ें में तुम सेंकती हो धुप
अक्सर अपनी छत पर अकेले टहलती हो
हालाँकि शहर में अब तो आ गया हैं
बारिशों का मौसम, फिर भी
मैंने अपने घर के कैलंडर में रोक रखा हैं जनवरी को
कंपकंपी नहीं होती मगर काँपता हूँ
जलती हुई दोपहर में आ जाता हूँ छत पर
टहलता हूँ बीसियों बार
देखता हूँ तुम्हारी छत को
मैं पागल हूँ,शायद!
तुम तो मुझे जानती भी नहीं हो
बस मैं ही चाहता हूँ तुम्हें
तुम तो मुझे चाहती भी नहीं हो 
ये मौसम मेरे मनचाहे क्यूँ बदलेंगे?
तुम मेरी खातिर छत पर क्यूँ आओगी?

Sunday, 20 January 2013

“आत्ममंथन”


नरसंहार बलात्कार व कई दुर्व्यवहार जब जब होते है इस धरा पर
सहम के कांपती है ये धरा और फिर इस तरह भूकंप आता है

भूख से मरता है जब बचपन
षड़यंत्र से लुटता है सुहागिनों का सिंदूर
शहनाईयों के घर में जब रुदाली काम आती है
तब हाय लगती है हाँ मनुवंश को इनकी
हाँ समंदर का ह्रदय भी छटपटाता है
और जलजले के साथ फिर सैलाब आता है

खत्म होती है जब रिश्तो की मर्यादा
सिमट के रह जाता है जब प्रेम दैहिक अवयवो के बीच
क्रूरता छल लेती है जब किसी के बालमन को
लालच कत्ल करती है जब ईमान का
आसमान भी जमीन को तब धिक्कारता है
एक-एक बादल हर किसान को दुत्कारता है
और अन्न का दाना भी फिर दुश्वार हो जाता है

भगवान के अस्तित्व पर जब प्रश्न उठते है
देशरक्षक ही देश को जब लुटते है
मानवता जब पैरों तले रौंदी जाती है
वहशियों के हाथों में इज्जत सौंप दी जाती है
भरे बाजार में तब नैतिकता नीलाम होती है
हमारी ललनाओं की कोख भी बदनाम होती है
बह निकलता है रोष गरम लावा के रूप में
और फिर इस तरह ज्वालामुखी विस्फोट होता है
बदलेंगे जब मानसिकता खत्म होगा क्लेश भी
इस तरह तो न रहेंगे मनुष्य के अवशेष भी
बदलना ही पड़ेगा अब हमें हमारी पीढ़ियों के वास्ते
बंद करने होंगे अब कुप्रवृतियो के रास्ते
वर्ना रामराज्य है कहाँ ये तो राक्षसों की लंका है
कर दो आत्ममंथनअब शुरू, क्योंकि मुझे महाप्रलय की आशंका हैI    

Saturday, 19 January 2013

"कल फिर आना तुम"


कल फिर आना तुम
उन्ही निगाहों को लेकर
जिन निगाहों से
तुमने मुझे पहली बार देखा
और
मुझ ही में खो गए
उसी पेड़ के तले आना
जहां बैठकर अक्सर
हम न जाने कितनी ही बाते किया करते थे
तुम्हे याद है वो
पेड़ के कोटर में रहने वाला
पक्षियों का जोड़ा
जो गवाह है
हमारी प्रीत के पहले चुम्बन का
याद है वो अधमुड़ी डाली
यूँ लगता था,मानो
कोई छुप छुप के हमें देख रहा हो
तुम तो शायद भूल जाओगे कभी मुझको
मगर वो सब,मुझे कभी नहीं भूलेंगे
उन्हें कह देना नहीं आएगी यहाँ पर
सयानी सी दिखने वाली वो नादान लड़की
कल फिर आना कॉलेज की लाइब्रेरी में
जहां मैं यूँही किताबे पलटते हुए
तुम्हारे आने का इन्तजार किया करती थी
तुम कुछ कंकरों में प्रेमपत्र लपेटकर
मेरी और फेंका करते थे
वो कंकर कल भी वही पड़े होंगे
वो कंकर,
शायद फिर ख़ूबसूरत शब्दों में सिमटना चाहे
तुम उन्हें उठाकर फ़ेंक देना पत्थरों के ढेर में
मैं नहीं चाहती की उनपर फिर
किसी मासूम को बर्बाद करने का इल्जाम लगे
कल फिर आना तुम
शहर की उस दूकान पर
जहां से खरीदकर तुमने मुझे पहला गुलाब दिया था
वहाँ फर्श पर बिखरी होगी कुछ सुखी पंखुड़िया
उन्हें छूना मत, उन्हें कुचलना अपने पैरों से
ताकि उन्हें भी अहसास हो
जमाने में
जमीन पर पड़ी हर चीज को
यूँ ही कुचला जाता है
किसी के अरमानो की तरह
कल फिर आना तुम
उसी नदी के किनारें
जहां तुम मुझे बस एक बार ले गए
और न जाने क्यूँ
मैं तुम्हे वहाँ ले जाने को कहती
तो तुम टाल देते
तुम डरते थे,शायद!
कहीं हम
नहीं तुम
बदनाम न हो जाओ
देखना वहाँ बैठी हर लड़की में
तुम्हे मैं नजर आउंगी
गुनगुनाती हुई
खिलखिलाती हुई
अपने प्रेमी से वफाओ के वादे लेती हुई
लेकिन वो मैं नहीं हूँ
मैं तो डूब गयी हूँ
उसी नदी में
फँस गयी हूँ
सैंकड़ो जलचर सांपो के मजबूत पाशो में
गला रुंधा हुआ है मेरा
मगर
मैं रो नहीं पा रही
काश!मुझे कोई रोने देता
काश!मुझे कोई रोने देता