Sunday, 9 December 2012

"विद्रोह"

बहुत देर से चुपचाप बैठे हो तुम 
कहीं तुम घुट तो नहीं रहे 
तुम्हारा मन कोई मुल्क न हो जाये 
तुम्हारी आँखें  न देखने लगे नव-स्वप्न 
तुम्हारी जुबान न बोलने लगे नारे 
तुम्हारे हाथ न करने लगे आन्दोलन 
तुम्हारे पाँव न चलने लगे शिखर पर 
डरता  हूँ किसी नाकाम सरकार  की तरह
मैं भी तुम्हारे "विद्रोह" से

Sunday, 28 October 2012

कलम


सीँच के कागज को स्याही से जो लफ्जो को बोती है
देखो आज ये कलम बिचारी अपनी हालत पे रोती है
नौसिखीयो के हाथो मेँ आ शब्दो के संकर बन जाते
चट्टानी चेहरे विस्फोटो से पल मेँ कंकर बन जाते
रोजाना अब मंचो पर भाषा की हत्या होती है

गीत विरह के गजल प्यार की जाने क्या-क्या
लिखती ये
इसकी ताकत बहुत बडी है चाहे बौनी दिखती ये
मनु-उर की सीपी से निकले इसके आखर मोती है

शाम हो गई सुर्य ढल गया आशातीत था वो दिवस टल गया
चुल्हे मेँ तो आग नही थी सो लेखक का भाग्य जल गया
फिर भी उसने कलम को चुमा शायद यही कसौटी है