बहुत देर से चुपचाप बैठे हो तुम
कहीं तुम घुट तो नहीं रहे
तुम्हारा मन कोई मुल्क न हो जाये
तुम्हारी आँखें न देखने लगे नव-स्वप्न
तुम्हारी जुबान न बोलने लगे नारे
तुम्हारे हाथ न करने लगे आन्दोलन
तुम्हारे पाँव न चलने लगे शिखर पर
डरता हूँ किसी नाकाम सरकार की तरह
मैं भी तुम्हारे "विद्रोह" से